Constitutional Development : भारत का संवैधानिक विकास 1773-1947 (Class 1) | UPSCSITE

भारत का संवैधानिक विकास (Constitutional Development) 1773 से लेकर 1947 तक

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Constitutional Development : भारत का संवैधानिक विकास

1773 का रेग्युलेटिंग एक्ट

इस एक्ट को 1773 में ब्रिटिश संसद द्वारा पास किया गया तथा 1774 में इसे लागू किया गया। इस अधिनियम के प्रावधान के तहत

(1) कोर्ट ऑफ डाइरेक्टर का कार्यकाल 1 वर्ष के स्थान पर 4 वर्ष कर दिया गया। 

(2) फोर्ट विलियम प्रेसीडेंसी (बंगाल) के प्रशासक को अब अंग्रेजी क्षेत्रों का गवर्नर जनरल कहा जाने लगा तथा उसके सहयोग के लिए 4 सदस्यों की एक कार्यकारिणी बनाई गयी, जिसे नियम बनाने तथा अध्यादेश पारित करने का अधिकार दिया गया। गवर्नर जनरल को अपने कौंसिल के विरुद्ध कार्य करने का अधिकार नहीं था। 

(3) कलकत्ता में एक सुप्रीम कोर्ट की स्थापना की गई, जिसमें अंग्रेजी विधि से न्याय होता था। 

(4) कर्मचारियों का निजी व्यापार प्रतिबंधित कर दिया गया।

1784 का पिट्स इंडिया ऐक्ट

इस ऐक्ट के विवाद को लेकर ब्रिटेन में लार्ड नार्थ तथा फॉक्स की मिली-जुली सरकार को त्यागपत्र देना पड़ा था। यह पहला और अंतिम अवसर था, जब किसी भारतीय मामलों पर ब्रिटिश सरकार गिर गयी थी। इस अधिनियम के मुख्य प्रावधान 

(1) द्वैध शासन की स्थापना- कोर्ट ऑफ डायरेक्टर्स (व्यापारिक मामलों के लिए) और बोर्ड ऑफ कंट्रोल (राजनीतिक मामलों के लिए), जो 1856 तक कायम रहा। 

(2) बम्बई तथा मद्रास प्रेसीडेन्सियाँ भी गवर्नर जनरल एवं उनके परिषद के अधीन हो गयीं।

(3) गवर्नर जनरल की परिषदों की संख्या 3 कर दी गयी और गवर्नर को परिषद् पर विशेष अधिकार दिया गया। 

(4) गवर्नर जनरल बोर्ड ऑफ कंट्रोल की अनुमति के बिना किसी भारतीय नरेश से युद्ध एवं संधि नहीं कर सकता था।

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1786 का चार्टर ऐक्ट

यह ऐक्ट कॉर्नवालिस को भारत लाने के उद्देश्य से लाया गया। इसके द्वारा मुख्य सेनापति की शक्ति गवर्नर जनरल में निहित कर दी गई। अब गवर्नर जनरल विशेष परिस्थिति में परिषद के निर्णय को रद्द कर सकता था।

1793 का चार्टर ऐक्ट

इसके द्वारा लंदन स्थित नियंत्रण बोर्ड के सदस्यों एवं कर्मचारियों के वेतनादि भारतीय कोष से देने का निर्णय किया गया, जो व्यवस्था 1919 तक कायम रही ।

1813 का चार्टर ऐक्ट

इस अधिनियम के मुख्य प्रावधान :

(1) कम्पनी के व्यापारिक एकाधिकार को समाप्त कर दिया गया, किन्तु उनके चीन से तथा चाय के व्यापार पर एकाधिकार कायम रहा। 

(2) कम्पनी के भागीदारों को भारतीय राजस्व से 10% लाभांश देने का निश्चय किया गया। 

(3) भारतीयों के लिए एक लाख रुपया वार्षिक शिक्षा में सुधार, साहित्य में सुधार एवं पुनरुत्थान के लिए और भारतीय प्रदेशों में विज्ञान की प्रगति के लिए खर्च करने का प्रावधान किया गया। 

(4) प्रथम बार अंग्रेजों की भारत पर संवैधानिक स्थिति स्पष्ट की गयी।

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1833 का चार्टर एक्ट

इस एक्ट पर औद्योगिक क्रांति उदारवादी नीतियों का क्रियान्वयन तथा लेसेज फेयर के सिद्धांत की छाप थी। इसका मुख्य प्रावधान :

(1) कम्पनी का व्यापारिक एकाधि कार पूर्णतः समाप्त हो गया। 

(2) कम्पनी के अब केवल राजनीति अधिकार थे।

(3) बंगाल का गवर्नर जनरल अब भारत का गवर्नर जनरल हो गया। 

(4) भारतीय कानूनों को संचित, लिपिबद्ध तथा सुधारने के उद्देश्य से एक विधि आयोग का गठन किया गया। (5) नियुक्तियों के लिए योग्यता संबंधी मापदंड को अपनाकर भेदभाव को समाप्त कर दिया गया। 

(6) भारत में दासता को अवैध (1843 में प्रतिबंधित) घोषित किया गया।

1853 का चार्टर ऐक्ट

इसके द्वारा :

(1) कम्पनी को ब्रिटिश सरकार की ओर से भारत का क्षेत्र ट्रस्ट के रूप में तब तक रखने की आज्ञा दी गयी जब तक कि ब्रिटिश संसद ऐसा चाहे। 

(2) विधि सदस्य अब गवर्नर जनरल के काउन्सिल का पूर्ण सदस्य बन गया। 

(3) सरकारी सेवाओं में नियुक्तियाँ अब डाइरेक्टरों के द्वारा न होकर प्रतियोगी परीक्षाओं द्वारा होने लगी।

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1858 का चार्टर-एक्ट

(1) कम्पनी का शासन समाप्त कर उसकी जिम्मेवारी ब्रिटिश क्रॉउन को सौंप दी गयी। भारत का गवर्नर जनरल अब वायसराय कहा जाने लगा। 

(2) बोर्ड ऑफ कंट्रोल एवं बोर्ड ऑफ डायरेक्टर का समस्त अधिकार ‘भारत सचिव” को सौंप दिया गया। भारत सचिव ब्रिटिश मंत्रिमंडल का सदस्य होता था। जिसकी सहायता के लिए 15 सदस्यीय भारतीय परिषद का गठन किया गया। 

(3) भारतीय मामलों पर ब्रिटिश संसद का सीधा अधिकार स्थापित हो गया।

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1861 का भारतीय परिषद अधिनियम

(1) यह पहला ऐसा अधिनियम था जिसमें विभागीय प्रणाली एवं मंत्रिमण्डलीय प्रणाली की नींव रखी गयी। (2) वायसराय की कार्यकारिणी का विस्तार हुआ। 

(3) वायसराय को पहली बार अध्यादेश जारी करने एवं विधान परिषद द्वारा पारित विधियों के विरुद्ध वीटो करने की शक्ति प्रदान की गई। 

(4) वायसराय को नये प्रांतों की स्थापना तथा उसकी सीमाओं में परिवर्तन का अधिकार दिया गया।

1892 का भारतीय परिषद अधिनियम

(1) केन्द्रीय तथा प्रांतीय विधान परिषदों की सदस्य संख्या में वृद्धि की गयी। 

(2) चुनाव पद्धति की अप्रत्यक्ष शुरुआत हुई। निर्वाचन की पद्धति पूर्णतया अप्रत्यक्ष थी। 

(3) परिषद के भारतीय सदस्यों को वार्षिक बजट पर बहस करने तथा सरकार से प्रश्न पूछने का अधिकार दिया गया, किन्तु वे अनुपूरक प्रश्न नहीं पूछ सकते थे।

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1909 का भारतीय परिषद अधिनियम

(1) मुसलमानों के लिए पृथक मताधिकार एवं पृथक निर्वाचन क्षेत्रों की स्थापना की गई। 

(2) भारतीयों को विधि निर्माण या प्रशासन दोनों में प्रतिनिधि त्व प्रदान किया गया। 

(3) केन्द्रीय एवं प्रांतीय परिषद के सदस्य बजट पर बहस कर सकते थे और अनुपूरक प्रश्न पूछ सकते थे। (4) केन्द्रीय व प्रांतीय कार्यकारिणी परिषद में एक-एक भारतीय सदस्य नियुक्त हुए। 

प्रतिक्रियाः-

के. एम. मुंशी- इन्होंने उभरते हुए प्रजातंत्र को मार डाला। 

मजूमदार यह सुधार केवल चन्द्रमा के चाँदनी के समान हैं।

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1919 का भारत सरकार अधिनियम (मॉण्टग्यु चेम्सफोर्ड सुधार) 

(1) इसमें पहली बार उत्तरदायी शासन शब्दों का स्पष्ट प्रयोग किया गया। 

(2) प्रत्यक्ष निर्वाचन प्रणाली लागू की गयी। 

(3) सिखों, यूरोपियनों, एंग्लो इंडियनों एवं भारतीय ईसाई को पृथ प्रतिनिधित्व दिया गया। 

(4) केन्द्र में द्विसदनीय व्यवस्था की गयी, पहला राज्यपरिषद और दूसरा केन्द्रीय विधान सभा । केन्द्रीय विधान सभा का कार्यकाल तीन वर्ष का था, जिसे वायसराय बढ़ा भी सकता था। 

(5) बजट पर बहस तो हो सकती थी, किन्तु उस पर मतदान का अधिकार नहीं था। 

(6) भारतीय कार्य की देख-भाल के लिए एक नया अधिकारी भारतीय उच्चायुक्त नियुक्त किया गया। 

(7) प्रांतों में द्वैध शासन की स्थापना हुई- पहला आरक्षित एवं दूसरा हस्तांतरित। आरक्षित विषयों का प्रशासन गवर्नर जनरल अपने द्वारा मनोनीत पार्षदों द्वारा करता था। हस्तांतरित विषयों का शासन निर्वाचित सदस्यों द्वारा चलाया जाता था। जो उत्तरदायी थे। 

(8) सभी विषयों को केन्द्र तथा प्रांतों में बांटा गया। केन्द्रीय विषय- विदेशी मामले, रक्षा, डाक-तार, सार्वजनिक ऋण आदि । प्रांतीय विषय- स्थानीय स्वशासन, शिक्षा, चिकित्सा, भूमि, जल, सुखms अकाल सहायता कृषि व्यवस्था आदि। 

(9) प्रांतों में द्वैध शासन प्रणाली 1 अप्रैल 1921 को लागू की गयी जो अप्रैल 1937 तक चलती रही। 

(10) स्त्रियों को सभा के लिए मताधिकार दिया गया।

कांग्रेस ने इस ऐक्ट को निराशाजनक एवं असंतोषप्रद कहा। 

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1935 का भारत सरकार अधिनियम

इसे 3 जुलाई 1936 लागू किया गया। वैसे पूर्णरूप से चुनावों के बाद अप्रैल 1937 को में यह लागू हुआ। इस अधिनियम में कुल 321 अनुच्छेद एवं 10 अनूसूचियां थीं। इसके द्वारा भारत में सर्वप्रथम संघीय शासन प्रणाली को प्रारम्भ किया गया। इस संघ में 11 ब्रिटिश प्रांत, 6 चीफ कमिश्नर के क्षेत्र एवं वे देशी रियासतें जो उसमें स्वेच्छा से शामिल होना चाहती थीं, शामिल थे।

इसके द्वारा प्रांतों में द्वैध शासन व्यवस्था को समाप्त कर दिया गया एवं केन्द्र में द्वैध शासन व्यवस्था अपनायी गयी। संघीय विषय को दो भागों में (संरक्षित एवं हस्तांतरित) में विभाजित किया गया। संरक्षित विषय का प्रशासन गवर्नर जनरल कुछ पार्षदों की सहायता से करता था, जो संघीय व्यवस्थापिका के प्रति उत्तरदायी नहीं थे। हस्तांतरित विषयों का प्रशासन मंत्रियों को सौंपा गया। मंत्री विधान मण्डल के सदस्यों में से चुने जाते थे तथा उसके प्रति उत्तरदायी होते थे।

•इसके द्वारा 6 प्रांतों में द्विसदनीय तथा 5 प्रांतों में एक सदनीय विधान मंडलों के व्यवस्था की गई।

• इसके द्वारा एक संघीय न्यायालय के गठन की व्यवस्था की गई। इस न्यायालय को मौलिक अपीलीय तथा परामर्शदात्री क्षेत्राधिकार प्राप्त था। यह एक अभिलेख न्यायालय भी था। यह न्यायालय अपील का सर्वोच्च न्यायालय नहीं था। इसके निर्णयों के विरुद्ध इंग्लैंड की प्रीवी कौंसिल में अपील की जा -सकती थी।

• संघीय विषय की केंद्रीय सूची (59 विषय), प्रांतीय सूची (54 विषय) और समवर्ती सूची (36 विषय) बनाई गई। 

•रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया की स्थापना की गई।

• यह नया संविधान अनम्य था। इसमें संशोधन करने का अधिकार केवल अंग्रेजी संसद को ही था।

• भारत राज्य सचिव की परिषद समाप्त कर दी गई एवं संघीय प्राधिकरण की स्थापना की गई।

• सांप्रदायिक निर्वाचन को और बढ़ाकर इसे हरिजनों तक विस्तृत किया गया।

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प्रतिक्रिया

•  जवाहरलाल नेहरू ने इसे ‘अनैच्छिक, अप्रजातांत्रीय और अराष्ट्रवादी संविधान’ की संज्ञा दी।

•  जिन्ना ने इसे पूर्णतया सड़ा हुआ, मूल रूप से बुरा और बिल्कुल अस्वीकृत बतलाया।

•  जवाहरलाल नेहरू ने इसे अनेक ब्रेकों वाला परंतु इंजन रहित मशीन की संज्ञा दी।

• जवाहरलाल नेहरू ने इसे दासता का नया चार्टर कहा।      

• मदन मोहन मालवीय ने इसे बाह्य रूप से जनतंत्रवादी एवं अंदर से खोखला कहा।

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भारतीय स्वाधीनता अधिनियम 1947

वायसराय लार्ड माउंटबेटन की योजना पर आधारित यह विधेयक 4 जुलाई को बिटिश संसद में पेश किया गया। 18 जुलाई 1947 को शाही संस्तुति मिलने पर यह विधेयक अधिनियम बना। इस अधिनियम के मुख्य प्रावधान इस प्रकार हैं- 

(1) भारत का विभाजन, उसके स्थान पर भारत तथा पाकिस्तान नामक दो अधिराज्य की स्थापना 

(2) भारतीय रियासतों को यह अधिकार दिया गया कि अपनी इच्छानुसार भारत या पाकिस्तान में रहने का निर्णय ले सकती है। 

(3) जब तक दोनों अधिराज्य में नए संविधान का निर्माण नही करवा लिया जाता, तब तक राज्यों की संविधान सभाओं को अपने लिए कानून बनाने का अधिकार होगा। 

(4) जब तक नया संविधान निर्मित नहीं हो जाता तब तक दोनों राज्यों का शासन 1935 के अधिनियम द्वारा ही चलाया जाएगा। 

(5) दोनों अधिराज्यों के पास यह अधिकार सुरक्षित होगा कि वह अपनी इच्छानुसार राष्ट्रमंडल में बने रहें या उससे अलग रहें 

(6) 15 अगस्त 1947 से भारत और पाकिस्तान के लिए अलग-अलग गवर्नर जनरल कार्य करेंगे।

(7) जब तक प्रांतों में नये चुनाव नहीं कराए जाते, उस समय तक प्रांतों में पुराने विधान मंडल कार्य कर सकेंगे।

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