Impact of Iranian Presidents death 2024: जाने कैसे हुआ ईरानी राष्ट्रपति का इंतकाल? UPSCSITE

Impact of Iranian Presidents death: “ईरान का लोकतंत्र काफी परिपक्व है, इसलिए यह कहना सही नहीं होगा कि राष्ट्रपति इब्राहिम रईसी के नहीं रहने से देश की नीतियां बहुत ज्यादा प्रभावित होंगी

हेलीकॉप्टर दुर्घटना में ईरान के राष्ट्रपति इब्राहिम रईसी, विदेश मंत्री हुसैन अमीर-अब्दुल्लाहियन सहित नौ लोगों की मौत दुखद है। जिस तरह से दुनिया के कोने- कोने से शोक-संवेदनाएं आ रही हैं, उनसे तो यही पता चलता है कि अपने पांच दशकों के सार्वजनिक जीवन में इब्राहिम रईसी काफी प्रभावशाली रहे। यह सही है कि उनका बड़ा योगदान न्यायपालिका के क्षेत्र में रहा, खासतौर से पिछली सदी के 80 के दशक में, जब वह तेहरान के उप-अभियोजक और अभियोजक बने।

मगर बाद में उन्होंने अस्तान कुद्रस रजावी के मुख्य संचालक की जिम्मेदारी भी बखूबी संभाली। अस्तान कुस रजावी एक तरह का ट्रस्ट है, जो ईरान के पवित्र शहर मशहद स्थित इमाम रजा दरगाह का प्रबंधन करता है। यह दरगाह शिया संप्रदाय के लोगों के लिए काफी अहमियत रखती है। उल्लेखनीय है कि मशहद रईसी का जन्मस्थान भी है।

रईसी ने 2017 का चुनाव भी लड़ा था, लेकिन तब वह हार गए थे। 2021 में उन्हें जीत मिली और वह ईरान के राष्ट्रपति बने। बीते कुछ वर्षों में ईरान अगर उन्नति कर सका और इराक युद्ध से उबरकर एक स्थिर देश बन सका, तो इसमें रईसी का बड़ा योगदान माना जाता है। ऐसे में, सवाल यही है कि अब आगे ईरान का क्या होगा ?

हालांकि, अच्छी बात यही है कि ईरान का लोकतंत्र काफी परिपक्व है और वहां व्यक्ति-विशेष के रहने या न रहने से खास प्रभाव नहीं पड़ता। वहां राष्ट्रपति का पद भले अहम है, मगर ‘चेक ऐंड बैलेंस’, यानी संतुलन बनाने वाली व्यवस्थाएं काफी कारगर हैं, इसलिए यह कहना सही नहीं होगा कि रईसी के न रहने से ईरान की नीतियां प्रभावित होंगी।

पश्चिमी मीडिया ने भले ईरान की एक खास छवि बना दी है, लेकिन वास्तव में यह एक स्थिर मुल्क है और यहां का नेतृत्व काफी सुलझा हुआ रहा है। है। यह कितना जिम्मेदार देश है, इसका एहसास इससे भी होता है कि इसने जो परमाणु समझौता किया था और जिससे अमेरिका खुद बाहर निकल आया, उसे सुरक्षा परिषदके देशों के साथ-साथ संयुक्त राष्ट्र ने भी सराहा था।रईसी के कार्यकाल में ही ईरान शंघाई सहयोग संगठन का सदस्य बना।

ईरान ने क्षेत्रीय मसलों को सुलझाने में भी काफी मदद की है और अफगानिस्तान में इसने जो काम किया है, उसका नतीजा हमें पिछले दिनों देखने को मिला, जब उसके साथ चाबहार समझौता हो सका।

हां, उसकी घरेलू राजनीति कुछ हद तक अस्त- व्यस्त रही, लेकिन इसकी वजह यह है कि ईरान की अर्थव्यवस्था काफी हद तक तेल पर निर्भर है। 2013- 14 तक तेल के दामों में काफी वृद्धि हुई थी, जिससे तेहरान की आमदनी बनी रही, जबकि उस पर प्रतिबंध भी लगा हुआ था। मगर 2014 के बाद तेल के दाम घट गए, जिससे उसकी अर्थव्यवस्था पर असर पड़ा। रही सही कसर अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने 2018 में पूरी कर दी, जब वह उस समझौते से बाहर निकल गए, जो बराक ओबामा के कार्यकाल में किए गए थे। इससे ईरानी अर्थव्यवस्था पर काफी असर पड़ा, फिर भी उसकी सियासत बहुत अस्थिर नहीं हुई।

यही कारण है कि रईसी के जाने के बाद भी ईरान में स्थिरता बने रहने की संभावना अधिक जताई जा रही है। विशेषकर भू-राजनीति के मोर्चे पर इसलिए भी भरोसा ज्यादा होता है, क्योंकि ईरान ने अब तक काफी परिपक्वता दिखाई है। दरअसल, इसकी भू-राजनीति तीन पहलुओं में सिमटी हुई है। पहला पहलू अफगानिस्तान है, जो इसके पूर्व में स्थित है। ईरान एक शिया बहुल राष्ट्र है, जबकि तालिबान एक सुन्नी गुट।

दोनों में मतभेद जरूर रहे हैं, लेकिन अफगानिस्तान के नव-निर्माण में ईरान की भूमिका किसी से छिपी नहीं है। पाकिस्तान के साथ ईरान की नोक-झोंक की वजह भी यही है। यहां तक कि हिन्दुस्तान के समान ईरान ने भी पाकिस्तानी आतंकियों को खूब झेला है। भारत में यह कई लोगों को पता नहीं होगा कि पुलवामा घटना से ठीक एक दिन पहले ईरान में भी इसी तरह फौजियों

पर हमला किया गया था, जिसमें ईरानी फौज के 27 जवान शहीद हो गए थे। अभी चार महीने पहले भी जब ईरान ने पाकिस्तान के बलूचिस्तान में मिसाइल दागे थे, तब दोनों देशों के बीच तनातनी बढ़ गई थी। मतलब साफ है, अफगानिस्तान और पाकिस्तान को लेकर हमारी और ईरान की नीतियों में काफी समानता है। उसका यह रुख यूं ही बना रह सकता है।

दूसरा पहलू गाजा है, जो ईरान के पश्चिम में स्थित है। फलस्तीन की समस्या 1948 से चल रही है और 1979 तक ईरान व इजरायल के संबंध बहुत अच्छे थे। इसका अर्थ है कि ईरान और इजरायल के मौजूदा तनातनी का कारण गाजा नहीं है, क्योंकि यह समस्या तो बरसों पुरानी है। गाजा मसले का हल इजरायल के नजरिये से उसके बंधकों की रिहाई और फलस्तीन के नजरिये से युद्ध विराम से निकल सकता है। इन दोनों में ईरान की शायद ही कोई भूमिका हो सकती है।

यही बात तीसरे पहलू, यानी हूती समस्या के बारे में कही जा सकती है, क्योंकि हूतियों ने तब हमले शुरू किए, जब उनका सऊदी अरब से झगड़ा हुआ। जबकि, ईरान के खाड़ी देशों के साथ अच्छे रिश्ते हैं। ईरान ने सऊदी अरब के साथ अपने संबंध रईसी के कार्यकाल में काफी सुधारे हैं। इसका बड़ा असर तेल के दामों पर भी पड़ा है।

रही बात अमेरिका से रिश्ते की, तो यह बहुत कुछ अमेरिका की नीतियों पर निर्भर करेगा। मगर माना यही जा रहा है कि चूंकि इस वर्ष वहां राष्ट्रपति चुनाव होने वाले हैं, इसलिए चुनावी वर्ष में शायद ही कोई नेता अमेरिकी नीतियों में बदलाव का जोखिम उठाना चाहेगा। भारत को लेकर भी ठीक इसी तरह की बात कही जा सकती है। भारत और ईरान का रिश्ता वर्षों पुराना है और दोनों देशों में नीति-नियंता काफी परिपक्व हैं।

चाबहार समझौता बेशक रईसी साहब के कार्यकाल में हुआ, लेकिन इसको लेकर चर्चाएं साल 2012 से ही शुरू हो गई थीं और 2015 में हमने इस बाबत एक समझौता भी किया था। जो जुड़ाव दोनों देशों में बना है, वह इस एक हादसे की भेंट नहीं चढ़ सकता।

स्पष्ट है, ईरान स्थिरता का पक्षधर रहा है। बतौर राष्ट्रपति इब्राहिम रईसी ने इसे आगे बढ़ाने का ही काम किया था। ऐसे में, उनका न रहना दुखद जरूर है, पर ईरान की व्यक्ति-विशेष की राजनीति से जिस तरह की दूरी है, वहां की राजनीतिक संस्कृति पूर्ववत बनी रहेगी।

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