Fundamental Right : मूल अधिकार क्लास नोट्स (Make Complete Notes Class 12) | UPSCSITE

Fundamental Right Complete Notes For UPSC & PCS : मूल अधिकार क्लास नोट्स (Make Complete Notes Class 12)

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Fundamental Right : मूल अधिकार क्लास नोट्स

Class 12. मूल अधिकार

~अनुच्छेद 12 के अनुसार मूल अधिकार व्यक्तियों का राज्यों के विरुद्ध संरक्षण है।

~अनुच्छेद 13 के अनुसार न्यायालय मूल अधिकारों से असंगत विधियों को अवैध घोषित कर सकता है, अर्थात् इसमें न्यायिक पुनर्विलोकन की शक्ति समाहित है। इस रूप में अनुच्छेद 13 को नागरिकों के मूल अधिकारों का प्रहरी बताया गया है।

~मूल अधिकार संविधान लागू होने के समय 7 थे, परंतु 44वें संविधान संशोधन 1979 द्वारा संपत्ति के अधिकार (अनु. 31 एवं 19च) को मूल अधिकार की सूची से हटाकर अनुसूची 300 (क) के अन्तर्गत सिर्फ कानूनी अधिकार के रूप में रखा गया। वर्तमान में भारतीय नागरिकों को निम्न छ: मूल अधिकार प्राप्त हैं-

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1. समता का अधिकार (अनु. 14 से 18) 

~अनुच्छेद 14 (विधि के समक्ष समता)- इसके तहत राज्य सभी नागरिकों के लिए एक समान कानून बनाएगा एवं उन पर एक समान लागू करवायेगा, किन्तु भारत के राष्ट्रपति, राज्यों के राज्यपालों, न्यायालयों के न्यायाधीशों, लोकप्राधिकारियों को अनुच्छेद 361 के तहत विशेष प्राधिकार प्रदान किये गये हैं।

~अनुच्छेद 15 (धर्म, नस्ल, जाति, मूलवंश, जन्म स्थान एवं लिंग के आधार पर विभेद का निषेध)- राज्य के द्वारा धर्म, जाति, मूलवंश, जन्म-स्थान एवं लिंग के आधार पर नागरिकों के प्रति किसी प्रकार का भेदभाव नहीं किया जाएगा। किन्तु अपवादस्वरूप अनु. 15 (3) के तहत बालकों एवं स्त्रियों के विकास के लिए तथा अनु. 15 ( 4 ) के बदत सामाजिक तथा शैक्षिक दृष्टि से पिछड़े हुए वर्गों या अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों की उन्नति के लिए विशेष प्रावधान कर सकता है।

~अनुच्छेद 16 (लोकनियोजन के विषय में अवसर की समता ) राज्य के अधीन किसी पद पर नियुक्ति या नियोजन से संबंधि त विषयों में सभी नागरिकों के लिए अवसर की समानता होगी। किन्तु अनुच्छेद 16(2) (3) (4) एवं (5) इसके अपवाद हैं। राज्य अनुच्छेद 16 (4) के तहत सामाजिक एवं शैक्षिक दृष्टि से पिछड़े वर्ग को सरकारी नौकरी में आरक्षण उपलब्ध कराता है। उच्चतम न्यायालय ने बालाजी वाद मामले में आरक्षण की अधिकतम सीमा 50% माना।

~अनुच्छेद 17 (अस्पृश्यता का अंत ) – यह मूल अधिकार व्यक्ति को राज्यों के साथ-साथ नागरिकों के विरुद्ध भी प्राप्त है। अस्पृश्यता का अंत करने के लिए कानून बनाने का अधिकार संसद को अनुच्छेद-35 द्वारा दिया गया है, जिसके तहत संसद ने अस्पृश्यता अधिनियम-1955 पारित किया।

~अनुच्छेद 18 ( उपाधियों का अंत ) – राज्य सेना या विद्या संबंधी सम्मान के सिवाय और कोई उपाधि प्रदान नहीं करेगा। भारत का कोई भी नागरिक राष्ट्रपति की अनुमति के बिना किसी विदेशी राज्य से कोई उपाधि धारण नहीं कर सकता, किन्तु इस अनुच्छेद की अवहेलना करने वालों के लिए किसी दण्ड का विधान नहीं है।

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2. स्वतंत्रता का अधिकार ( अनुच्छेद 19 से 22 ) 

~अनुच्छेद 19- मूल संविधान में सात प्रकार की स्वतंत्रताओं का उल्लेख है, अब सिर्फ छ: हैं-

~19 (1) (क) – वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, प्रेस की स्वतंत्रता, सूचना की स्वतंत्रता, राष्ट्रीय ध्वज फहराने की स्वतन्त्रता।

~19 (1) (ख)- शांतिपूर्ण तथा निरायुध सम्मेलन की स्वतंत्रता ।

~19(1) (ग) – संगम या संघ बनाने की स्वतंत्रता ।

~(19 (1) (घ)– भारत में सर्वत्र स्वतंत्रतापूर्वक भ्रमण करने की ‘स्वतंत्रता।

~19 (1) (ड)- भारत के राज्यक्षेत्र के किसी भाग में जम्मू-कश्मीर को छोड़कर निवास करने तथा बस जाने की स्वतंत्रता।

~19 (1) (छ)– कोई भी वृत्ति, उपजीविका, व्यापार या कारोवार करने की स्वतंत्रता ।

~अनुच्छेद 20- (अपराधों के लिए दोषसिद्धि के सम्बंध में संरक्षण)- इस अनुच्छेद में निम्न प्रावधान हैं- 

(1) किसी व्यक्ति को किसी अपराध के लिए तब तक दोषी निर्णीत नहीं किया जा सकता, जब तक उसने ऐसी विधि का उल्लंघन न किया हो। 

(2) अपराधी को अपराध करने के समय जो कानून हैं उसी के तहत सजा मिलेगी, न कि पहले और बाद के बनने वाले कानून के तहत 

(3) एक अपराध के लिए एक से अधिक दण्ड नहीं दिया जा सकता। 

(4) किसी भी अपराधी को स्वयं के विरुद्ध साक्ष्य पेश करने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता।

~अनुच्छेद 21 ( प्राण और दैहिक स्वतंत्रता का संरक्षण) किसी व्यक्ति को उसके प्राण या दैहिक स्वतंत्रता से विधि। द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार ही वंचित किया जाएगा, अन्यथा नहीं।

~अनुच्छेद 21 (क) राज्य छः से चौदह वर्ष आयु तक के सभी बच्चों को विधि द्वारा स्थापित उपबन्धित निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा उपलब्ध कराएगा। इस अनुच्छेद को संविधान में 86वां संविधान–संशोधन 2002 के द्वारा जोड़ा गया।

~अनुच्छेद 22 (बंदीकरण व निरोध के विरुद्ध संवैधानिक संरक्षण) – अनुच्छेद 22 अनुच्छेद का पूरक है और इन दोनों को एक साथ पढ़ना चाहिए। अनुच्छेद 22 में 7 खण्ड हैं, जिनमें खण्ड (1) तथा (2) में गिरफ्तार व्यक्तियों के अधिकारों तथा संरक्षण के संबंध में प्रावधान किया गया है, जबकि खण्ड (3) से (7) तक में निवारक निरोध के सम्बंध में प्रावधान किया गया है।

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~गिरफ्तार व्यक्ति को निम्नलिखित अधिकार एवं संरक्षण प्रदान किया गया है-

1. गिरफ्तारी में लेने का कारण बताना होगा। 

2. 24 घंटे के अन्दर (आने-जाने के समय को छोड़कर) उसे नजदीक के दंडाधिकारी के समक्ष पेश करना होगा। 

3. उसे अपने पसंद के वकील से सलाह लेने का अधिकार होगा।

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~निवारक निरोध- इस कानून के अन्तर्गत किसी व्यक्ति को अपराध करने के पूर्व गिरफ्तार किया जा सकता है। इसका उद्देश्य व्यक्ति को अपराध के लिए दण्ड देना नहीं वरन् अपराध करने से रोकना है। वस्तुतः यह कार्यवाही लोक व्यवहार बनाये रखने एवं राज्य की सुरक्षा संबंधी कारणों से हो सकती है।

निवारक निरोध से संबंधित बनाई गई विधियां

1. निवारक निरोध अधिनियम 1950- भारतीय संसद द्वारा पहला निवारक निरोध कानून 26 फरवरी 1950 को परित किया गया। इसका उद्देश्य राष्ट्र विरोधी तत्वों को भारतीय प्रतिरक्षा के प्रतिकूल कार्य करने से रोकना था। इसके तहत नजरबंदी की अवधि एक वर्ष थी। यह अधिनियम 31 दिसम्बर 1969 तक अस्तित्व में रहा।

2. आन्तरिक सुरक्षा व्यवस्था अधिनियम (MISA) 1971- इस कानून के तहत संकट काल में किसी व्यक्ति को परामर्शदाता मंडल से परामर्श लिए बिना 21 माह तक नजरबंद किया जा सकता था। यह अधिनियम अप्रैल 1979 में समाप्त हो गया।

3. विदेशी मुद्रा संरक्षण तथा तस्करी निवारण अधिनियम 1974– आर्थिक क्षेत्र में इसे राष्ट्रीय सुरक्षा कानून का दर्जा प्राप्त है। प्रारम्भ में इसके अंतर्गत नजरबंदी की अवधि एक वर्ष थी। जिसे 1984 में एक अध्यायदेश द्वारा बढ़ाकर 2 वर्ष कर दिया गया है।

4. राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम 1983- इसका उद्देश्य साम्प्रदायिक और जातीय दंगों तथा देश की सुरक्षा के लिए खतरनाक अन्य गतिविधियों के उत्तरदायी व्यक्तियों को निरुद्ध करना है।

5. आवश्यक वस्तु एवं चोरवाजारी निवारण अधिनियम, 1980

6. आतंकवाद एवं विध्वंशक गतिविधि (निरोधक) अधिनियम (टाडा) 1985- निवारक निरोध के लिए अब तक जो कानून बने उन सब में यह सर्वाधिक कठोर एवं प्रभावी था। 23 मई 1995 को इसे समाप्त कर दिया गया। समाप्त करने वाला सबसे पहला राज्य उ. प्र. था।

7. आतंकवाद निरोधक अधिनियम (पोटा) 2002- देश में आतंकवाद पर अंकुश लगाने के उद्देश्य से यह अधिनियम लाया गया था, जिसे 21 दिसम्बर 2004 को केन्द्र सरकार द्वारा जारी अध्यादेश के जरिये रद्द कर दिया गया।

8. गैरकानूनी गतिविधियां (निवारण) अधिनियम 2004- इसके द्वारा राष्ट्र विरोधी गतिविधियों में शामिल लोगों के लिए मृत्युदंड तक का प्रावधान किया गया है।

9. गैर कानूनी गतिविधि निवारण (संशोधित) कानून 2009- इस कानून के दायरे में आतंकवाद और आतंकवाद के वित्त पोषण तथा अन्य तरीके से आतंकवादी गतिविधियों को सहायता करने वाले कार्यों को लाया गया है। इस कानून का उद्देश्य आतंकवाद से जुड़े मामलों की त्वरित जांच, अभियोजन और सुनवाई सुनिश्चित करना है।

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3. शोषण के विरुद्ध अधिकार ( अनुच्छेद 23-24 )

~अनुच्छेद 23 (मानव को दुर्व्यापार और बलात श्रम का प्रतिषेध)– इसके तहत मानव के दुर्व्यापार तथा बेगार और इसी प्रकार अन्य बलात श्रम को प्रतिषेद्ध किया जाता है और इसका उल्लंघन अपराध होगा, जो विधि के अनुसार दंडनीय होगा । इसी अनुच्छेद के तहत संसद ने विधुआ मजदूरी प्रणाली उन्मूलन अधिनियम 1976 और महिला एवं बाल अनैतिक व्यापार (निवारण) अधिनियम 1988 पारित किया।

~अनुच्छेद 24 (बालश्रम का निषेध)- इसके तहत 14 वर्ष से कम आयु के किसी बालक को किसी कारखाने या खान में काम करने के लिए नियोजित नहीं किया जाएगा या किसी अन्य परिसंकटमय कार्य में नहीं लगाया जाएगा। बाल अधिकारों के संरक्षण के उद्देश्य से 2007 में राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग का गठन किया गया।

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4. धर्म की स्वतंत्रा का अधिकार ( अनुच्छेद 25 से 28) 

~अनुच्छेद 25 (अन्तः करण की स्वतंत्रता)- इसके तहत सभी व्यक्तियों को अन्तः करण की स्वतंत्रता का और धर्म को बिना किसी बाधा के मानने, आचरण करने और प्रचार करने का अधिकार है।

~अनुच्छेद 26 (धार्मिक कार्यों के प्रबंध की स्वतंत्रता) – इसके तहत व्यक्ति को अपने धर्म के लिए संस्थाओं की स्थापना व पोषण करने, विधि सम्मत सम्पत्ति के अर्जन, स्वामित्व व प्रशासन का अधिकार है।

~अनुच्छेद 27 (धार्मिक व्यय पर कर से मुक्ति) – इसके तहत किसी भी व्यक्ति को ऐसा कर देने के लिए बाध्य नहीं किया जाएगा जिसकी आय को किसी विशेष धर्म या धार्मिक सम्प्रदाय की वृद्धि के लिए व्यय किया जाता है।

~अनुच्छेद 28- इसके तहत उन शिक्षा संस्थानों में कोई धार्मिक शिक्षा नहीं दी जाएगी, जो पूर्णतः सरकार के खर्च पर संचालित होती है। जो शिक्षा संस्थाएं किसी ऐसे न्यास द्वारा स्थापित की गयी है, जिसके अनुसार उस संस्था में धार्मिक शिक्षा देना आवश्यक है, उसमें धार्मिक शिक्षा दी जा सकती है, भले ही ऐसी संस्था का प्रशासन राज्य करता हो।

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5. संस्कृति और शिक्षा संबंधी अधिकार (अनुच्छेद 29 30)

~अनुच्छेद 29 (अल्पसंख्यक वर्गों के हितों का संरक्षण)- भारत का कोई भी अल्पसंख्यक वर्ग अपनी भाषा, लिपि एवं संस्कृति को सुरक्षित रख सकता है।

~अनुच्छेद 30 (शिक्षा संस्थाओं की स्थापना और प्रशासन करने का अल्पसंख्यक वर्गो का अधिकार)- इसके तहत धर्म या भाषा पर आधारित सभी अल्पसंख्यक वर्गों को अपनी रुचि के अनुसार शिक्षण संस्था को स्थापित करने तथा उनका प्रशासन करने का अधिकार है। 

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6. संवैधानिक उपचारों का अधिकार (अनुच्छेद 32 ) 

~संवैधानिक उपचारों के अधिकार को डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने संविधान की आत्मा कहा।

~अनुच्छेद 32- संविधान के भाग 3 में प्रत्यभूत मूल अधिकारों का यदि राज्य द्वारा उल्लंघन किया जाये तो राज्य के विरुद्ध उपचार प्राप्त करने के लिए अनुच्छेद 32 के अधीन उच्चतम न्यायालय में तथा अनुच्छेद 226 के अधीन उच्च न्यायालय में रिट याचिका दाखिल करने के अधिकार नागरिकों को प्रदान किये गये हैं। मूल अधिकारों के उल्लंघन की स्थिति में न्यायालय को निम्न रिट जारी करने का अधिकार है-

~बंदी प्रत्यक्षीकरण रिट- यह रिट गिरफ्तार किये गये व्यक्ति या उसके किसी संबंधी की प्रार्थना पर न्यायालय द्वारा उस प्राधि कारी के विरुद्ध जारी किया जाता है जो उसे गिरफ्तार किया होता है। इसके द्वारा न्यायालय बंदीकरण करने वाले प्राधिकारी को यह आदेश देता है कि वह बंदी बनाए गए व्यक्ति को निश्चित स्थान और निश्चित समय के अंदर उपस्थित करें, जिससे न्यायालय बंदी बनाए जाने के कारणों पर उचित विचार कर सको

~परमादेश (Mandamus): इसका शाब्दिक अर्थ, ‘हम आदेश देते हैं।’ यह उस समय जारी किया जाता है जब कोई पदाधि कारी अपने सार्वजनिक कर्तव्य का पालन नहीं करता। इस रिट के माध्यम से उसे अपने कर्तव्य के पालन का आदेश दिया जाता है।

~(उत्प्रेषण (Certiorari): इसका शाब्दिक अर्थ है ‘और अधिक जानकारी प्राप्त करना’। यह आदेश कानूनी क्षेत्राधिकार से सम्बंधित त्रुटियों अथवा अधीनस्थ न्यायालय से कुछ सूचना प्राप्त करने के लिए जारी किया जाता है। 

~अधिकार पृच्छा (Que-irranto): जब कोई व्यक्ति ऐसे पदाधिकारी के रूप में कार्य करने लगता है जिसका कि वह वैधानिक रूप से अधिकारी नहीं है तो न्यायालय इस रिट द्वारा पूछता है कि वह किस आधार पर इस पद पर कार्य कर रहा है। इस प्रश्न का समुचित उत्तर देने तक वह कार्य नहीं कर सकता है।

~प्रतिषेधः (Prohibition): यह तब जारी किया जाता है जब कोई न्यायिक अधिकरण अथवा अर्धन्यायिक प्राधिकरण अपने क्षेत्राधिकार का अतिक्रमण करता है। इसमें प्राधिकरण न्यायालय को कार्यवाही तत्काल रोकने का आदेश दिया जाता है।

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मौलिक अधिकार

~इसका उल्लेख संविधान के भाग 3 में है। 

~यह अमेरिका के संविधान से लिया गया है।

~यह न्यायालय में प्रवर्तनीय है। 

~इसका उद्देश्य राजनैतिक प्रजातंत्र की स्थापना है।

~यह नकारात्मक है। 

~आपत उपबंध में इन्हें रद्द किया जा सकता है। 

~यह अधिकार नागरिक को स्वतः प्राप्त है।

~इसका विषय व्यक्ति है।

नीति निर्देशक तत्व 

~इसका उल्लेख संविधान के भाग-4 में है।

~यह आयरलैंड के संविधान से लिया गया है

~यह न्यायालय में प्रवर्तनीय नहीं है।

~इसका उद्देश्य सामाजिक एवं आर्थिक प्रजातंत्र की स्थापना है।

~यह सकारात्मक है।

~इन्हें रद्द नहीं किया जा सकता है।

~यह साधन है।

~इसका विषय राज्य है।

~केवल भारतीय नागरिक को प्राप्त मूल अधिकार-अनुच्छेद 15, 16, 19, 29 एवं 301

~नागरिक एवं गैर नागरिक दोनों को प्राप्त मूल अधिकार- अनुच्छेद 14, 20, 21, 23, 24, 25, 26, 27, और 28। 

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मौलिक अधिकारों का निलम्बनः-

~जब राष्ट्रपति देश में 352 के तहत् राष्ट्रीय आपातकाल की घोषणा (युद्ध और बाह्य आक्रमण के आधार पर) करता है तो अनुच्छेद 19 के तहत् प्राप्त सभी मौलिक अधिकार स्वतः निलम्बित हो जाते हैं।

~अन्य मौलिक अधिकारो को राष्ट्रपति अनुच्छेद 359 के तहत अधिसूचना जारी कर निलम्बित कर सकता है।

~44वें संविधान संशोधन (1978) के अनुसार अनुच्छेद 20 और 21 द्वारा प्रदत्त अधिकार कभी भी समाप्त नहीं किए जा सकते।

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~मूल अधिकार में संशोधन- संविधान में इसका स्पष्ट उल्लेख नहीं है। अनुच्छेद 13 (2) में प्रावधान किया गया है कि राज्य ऐसी कोई विधि नहीं बनाएगा जो मूलाधिकारों को कम करती हो। संविधान का अन्तिम निर्वचनकर्ता उच्चतम न्यायालय इसलिए उसके समक्ष कई वादे आये।

1. शंकरी प्रसाद बनाम भारत संघ (1951)- इस मामले में न्यायालय ने निर्णय दिया कि अनुच्छेद 368 में विहित प्रक्रिया के अनुसार संविधान का संशोधन विधि के अन्तर्गत नहीं आता, इसलिए संसद्, संविधान में संशोधन कर सकती हैं।

2. गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य के मामले (1967) में न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि संसद को मूल अधिकार में संशोधन की कोई शक्ति नहीं है।

3. 24वां संशोधन (1971) द्वारा संसदत्तिय व्यवस्था दी कि संविधान के किसी भाग में संशोधन किया जा सकता है और राष्ट्रपति सभी संविधान संशोधन पर अपनी अनुमति देने के लिए बाध्य होगा।

4. केशवानन्द भारती बनाम केरल राज्य के मामले (1973) में 24वें संविधान संशोधन की संवैधानिकता को चुनौती दी गयी। इस वाद में उच्चतम न्यायालय ने यह माना कि संसद संविधान के किसी भी भाग में संशोधन कर सकती है, किन्तु उसके मूल ढांचे में परिवर्तन नहीं कर सकती।

5. 42वें संविधान संशोधन (1976) द्वारा यह व्यवस्था की गई कि संसद द्वारा किये गये संविधान संशोधन की वैधता को किसी भी आधार पर न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती और संसद की संविधान संशोधन शक्ति पर कोई परिसीमा नहीं होगी।

6. मिनर्वा मिल्स बनाम भारत संघ (1980) के निर्णय के द्वारा यह स्पष्ट किया गया कि संविधान के आधारभूत लक्षणों की रक्षा करने का अधिकार न्यायालय को है। इस आधार पर न्यायालय किसी भी संशोधन का पुनरावलोकन कर सकता है।

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